बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि परिनिर्वाण दिवस — जूठन सामाजिक सड़ाँध को उजागर करने वाले दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा है —

   
 17,नवंबर, 2013
वो थे इसलिए आज हम हैं! 
     इतिहास के पन्नों से 
— बहुजन कवि,बहुजन साहित्य के महानायक,बहुजन आंदोलन के क्रांतिकारी योद्धा,बहुजन साहित्यकार,डॉ अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित मां ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के परिनिर्वाण दिवस पर शत्-शत् नमन एंव विनम्र श्रद्धांजलि —
―जब जरूरत थी चमन को तो लहू हमने दिया,अब बहार आई तो कहते हैं तेरा काम नहीं ―
— साथियों हिमाचल विश्वविद्यालय में बहुजन साहित्यकार ओम प्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ बीते 3 सालों से पढ़ाई जा रही थी,इसके साथ-साथ देश के 13 से अधिक विश्वविद्यालयों में-जिनमें से कई केंद्रीय विश्वविद्यालय भी हैं- फिलवक्त पढ़ायी जा रही ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन —
    —  पुरस्कार —
— सम्मानित साथियों बहुजन साहित्य के पुरोधा,आत्मलेखक,कवि,बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मिकी जी को 1995 में परिवेश सम्मान, न्यू इंडिया बुक पुरस्कार 2004, कथाक्रम सम्मान 2001, 8वां विश्व हिंदी सम्मलेन 2006 न्यूयोर्क, अमेरिका सम्मान और साहित्यभूषण पुरस्कार (2008-2009) से अलंकृत किया जा चुका है —
— बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के कार्यो पर पूरे देश में सैकडो छात्र-छात्राओ ने रिसर्च किया है. अपने मरणोपरान्त तक ओमप्रकाश वाल्मीकि जी भी भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS), राष्ट्रपति निवास शिमला मे फैलो के रूप में शोध कार्य करते रहे —
"बेहद सच्चा और साहसी था जूठन का लेखक'
  — जूठन सामाजिक सड़ाँध को उजागर करने वाले दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा है —
— साथियों क्या आप लोगों को पता है बालीवुड स्टार आयुष्मान खुराना ने एक इंटरव्यू में ये कहा है कि आर्टिकल-15 फिल्म में रोल की तैयारी करने के क्रम में उन्होंने जूठन किताब को पढ़ा और उन्हें कई रातों तक नींद नहीं आई. कल्पना कीजिए उस व्यक्ति के बारे में जिसने ये जिंदगी जी होगी —
— साथियों आत्मकथा जूठन के नायक(बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि जी) ने ऐसे समाज में जन्म लिया है, जिसमें इंसान होने का हक प्राप्त करने के संघर्ष में ही उसकी पूरी जिंदगी गुजर जाती है. वह जाति-व्यवस्था के पिरामिड की सबसे निचली सतह में जन्मा व्यक्ति है. वह स्वयं कहता है कि “जाति पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है. पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में होता, तो मैं भंगी के घर पैदा क्यों होता?” 
— (जूठन, भाग-एक, पृष्ठ-163) —
— भारतीय समाज की संरचना का जिसे थोड़ा भी ज्ञान होगा, वह समझ सकता है कि ‘भंगी’ होने का अर्थ क्या होता है. यह सब यदि किसी को भी पता न हो, तो वह ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ जरूर ही पढ़ ले. जूठन’ का नायक जाति द्वारा तय नियति को बार-बार चुनौती देता है,जीवन के हर मोड़ पर उसे धर्म और जाति के ठेकेदारों के बनाए जाति के चक्रव्यूह में प्रवेश करना होता है और उसे तोड़कर निकलना होता है  —
— बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा ‘जूठन’ दलितों में भी सबसे नीचे क्रम की जाति में पैदा होने की यातना और उससे उबरने के संघर्ष का सुलगता दस्तावेज है. यह एक व्यक्ति की आपबीती होते हुए भी एक पूरे-के-पूरे समुदाय की आपबीती बन जाती है —
— ये मेरे बहुजन भाइयों झाड़ू छोड़ो कलम पकड़ो और चलो बुद्ध,फुले,अम्बेडकर कि शरण में —
― जब जरूरत थी चमन को तो लहू हमने दिया,अब बहार आई तो कहते हैं तेरा काम नहीं —
 — वहां भी तुम पहचानोगे मुझे मेरी जाति से ही —
    — जाति — 
——
स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना, मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में।
वहां भी तुम 
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से ही !
  — बहुजन साहित्यकार.ओमप्रकाश वाल्मीकि जी
 ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की प्रमुख कृतियाँ —
 — कविता संग्रह —
१-सदियों का संताप, 
२-बस बहुत हो चुका, 
३-अब और नहीं, 
४-शब्द झूठ नहीं बोलते, 
— कहानी संग्रह —
१-सलाम, घुसपैठिए, 
२-अम्‍मा एंड अदर स्‍टोरीज, 
३-छतरी
 — आत्मकथा —
१-जूठन 
 (अनेक भाषाओँ में अनुवाद)
   — बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता आपने एम. ए तक शिक्षा ली। पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट व उत्पीड़न झेलने पड़े और उन दिनों दलित परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। जो स्कूल जाने की  कोशिश करते थे, उनको जाने नहीं दिया जाता था। जो जाना भी चाहते थे, उनको रोकने की कोशिश की जाती थी। जो पहुँच जाते थे, उनको भगाने की कोशिश की जाती थी — 
— शिक्षकों की मानसिकता जातिवादी होती थी और वे ऐसा कोई मौका नहीं चूकते थे जहाँ वे जाति के आधार पर अपमानित किया जा सके। बचपन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनका चित्रण मैंने जूठन में किया है जो दलित जीवन के दग्ध अनुभव हैं। ऐसी स्थितियों में शिक्षा पाना बहुत मुश्किल होता था। परिवार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं होती थी कि शिक्षा ग्रहण कर सके। इन हालात में शिक्षा पाकर साहित्य की तरफ मुड़ना बहुत ही मुश्किल काम था, लेकिन मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ता रहा मेरे मन में साहित्य के प्रति आकर्षण भी बढ़ा और साहित्य ने ही मुझे हीनता-बोध से बाहर निकाला और जब मैं ७-८वीं कक्षा में था, तभी से कविता, कहानी लिखने की कोशिश करने लगा था, लेकिन सही दिशा मुझे मिली जब मैंने महाराष्ट्र में दलित पेंथर के आन्दोलन को बहुत करीब से देखा और डॉ. अम्बेडकर के जीवन दर्शन को अपनी व्यथा-कथाओं में अभिव्यक्त करने की प्रेरणा मिली  —
 — विशेष साभार:-जाने माने हिंदी साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का साक्षात्कार , जिसे मूलतः डॉ शगुफ्ता नियाज द्वारा http://hindivangmay1.blogspot.com/2009/01/blog-post10.html. पर 10 जनवरी 2009 को प्रस्तुत किया गया —
— बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी जब कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे तो वहाँ बहुजन लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डा. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे आपकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन आया —
— आप देहरादून स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में एक अधिकारी के पद से पदमुक्त हुए। हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश बाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आपने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है —
— आपका मानना है कि दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। आपने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है —
— आपकी भाषा सहज, तथ्यपूर्ण और आवेगमयी है जिसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता है। नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी आपकी रुचि थी। अपनी आत्मकथा जूठन के कारण आपको हिंदी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। 1993 में डा० अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और 1995 में परिवेश सम्मान, साहित्यभूषण पुरस्कार से अलंकृत किया गया —
— साथियों बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अस्सी के दशक से लिखना शुरू किया,लेकिन साहित्य के क्षेत्र में वे चर्चित और स्थापित हुए 1997 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा “जूठन” से. इस आत्मकथा से पता चलता है कि किस तरह वीभत्स उत्पीड़न के बीच एक दलित रचनाकार की चेतना का निर्माण और विकास होता है —
— किस तरह लंबे समय से भारतीय समाज-व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़ी “चूहड़ा” जाति का एक बालक ओमप्रकाश सवर्णों से मिली चोटों-कचोटों के बीच परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ दलित आंदोलन का क्रांतिकारी योद्धा ओमप्रकाश वाल्मीकि बनता है. दरअसल, यह दलित चेतना के निर्माण का दहकता हुआ दस्तावेज है —
— सदियों का संताप —
—————-
दोस्तो,
बिता दिए हमने हजारों वर्ष
इस इंतजार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
जहरीले पंजों समेत
फिर हम सब
एक जगह खड़े होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्‍त शिराओं में
हजारों परमाणु क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा!

— इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को —
पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर
ठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टांग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताजे लहू से महकती सड़कों पर
नंगे पांव दौडते
सख्‍त चेहरों वाले सांवले बच्चे
देख सकें
कर सकें प्यार
दुश्मनों के बच्चों से
अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर
— हमने अपनी उंगलियों के किनारों पर —
दुःस्वप्न की आंच को
असंख्य बार सहा है
ताजा चुभी फांस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पांव में
सुना है
दहाड़ती आवाजों को
किसी चीख की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्‍क तक का सफर तय करने में
थक कर सो गई है
दोस्तो,
इस चीख को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है !
जाति
——
स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना, मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में।
वहां भी तुम 
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से ही!
— इस कविता के माध्यम से वे उन तमाम बंधनों से मुक्त होने की जिस आकांक्षा को रखते हैं, उससे सच में एक क्रांति की लहर फूटने वाली लगती है —
      —  बचपन का संघर्ष —
— बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता आपने एम. ए तक शिक्षा ली। पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट व उत्पीड़न झेलने पड़े —
— वाल्मीकि जी जब कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे तो वहाँ बहुजन लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डा. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे आपकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन आया —
— आप देहरादून स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में एक अधिकारी के पद से पदमुक्त हुए। हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश बाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आपने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। आपका मानना है कि दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। आपने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है —
— आपकी भाषा सहज, तथ्यपूर्ण और आवेगमयी है जिसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता है। नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी आपकी रुचि थी। अपनी आत्मकथा जूठन के कारण आपको हिंदी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। 1993 में डा० अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और 1995 में परिवेश सम्मान, साहित्यभूषण पुरस्कार से अलंकृत किया गया —


— प्रस्तुत है उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ से एक अंश –
— उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था।  लड़के ने चिल्लाकर कहा, ‘‘मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।’’
— हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, ‘‘जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू…नहीं तो गां… में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।’’
— भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली। मेरी तरह ही उसके पत्ते सूखकर झरने लगे थे। सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियाँ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा। स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों और लड़कों की आँखें छिपकर तमाशा देख रही थीं। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई में लगातार गिर रहा था —
— मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुजरे। मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ू लगाता देखकर ठिठक गए। बाहर से ही आवाज देकर बोले, ‘‘मुंशी जी, यो क्या कर रा है ?’’ वे प्यार से मुझे मुंशी जी ही कहा करते थे। उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा। वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए। मुझे रोता देखकर बोले, ‘‘मुंशी जी..रोते क्यों हो ? ठीक से बोल, क्या हुआ है ?’’
— मेरी हिचकियाँ बँध गई थीं। हिचक-हिचककर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाड़ू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते —
— पिताजी ने मेरे हाथ से झाड़ू छीनकर दूर फेंक दी। उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आई थी। हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहनेवाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं। चीखने लगे, ‘‘कौण-सा मास्टर है वो द्रोणाचार्य की औलाद, जो मेरे लड़के से झाड़ू लगवावे है…’’
— पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूँज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर बाहर आ गए थे। कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया। लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ उस रोज जिस साहस और हौसले से पिताजी ने हेडमास्टर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। कई तरह की कमजोरियाँ थीं पिताजी में लेकिन मेरे भविष्य को जो मोड़ उस रोज उन्होंने दिया, उसका प्रभाव मेरी शख्सियत पर पड़ा —
— हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, ‘‘ले जा इसे यहाँ से..चूहड़ा होके पढ़ने चला है…जा चला जा…नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूँगा।’’
— पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और लेकर घर की तरफ चल दिए। जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले, ‘‘मास्टर हो…इसलिए जा रहा हूँ…पर इतना याद रखिए मास्टर…यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा…इसी मदरसे में। और यो ही नहीं, इसके बाद और भी आवेंगे पढ़ने कू।’’
1.वाल्मीकि ओमप्रकाश,जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, भूमिका
2. वही पृ.सं.- 19
3. वही पृ.सं.-11
4. वही पृ.सं.-15
5. वही पृ.सं.-27
6. वही पृ.सं.-72
7. वही पृ.सं.-19
―विशेष साभार-: बहुजन समाज और उसकी राजनीति,मेरे संघर्षमय जीवन एवं बहुजन समाज का मूवमेंट,दलित दस्तक,फारवर्ड प्रेस―
@:-साथियों हमें ये बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हमारे पूर्वजों का संघर्ष और बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। हमें उनके बताए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम साहबजी,बहन मायावती जी  ने वह कर दिखाया जो उस दौर में सोच पाना भी मुश्किल था !
— सच अक्सर कड़वा लगता है। इसी लिए सच बोलने वाले भी अप्रिय लगते हैं,सच बोलने वालों को इतिहास के पन्नों में दबाने का प्रयास किया जाता है,पर सच बोलने का सबसे बड़ा लाभ यही है,कि वह खुद पहचान कराता है और घोर अंधेरे में भी चमकते तारे की तरह दमका देता है। सच बोलने वाले से लोग भले ही घृणा करें, पर उसके तेज के सामने झुकना ही पड़ता है। इतिहास के पन्नों पर जमी धूल के नीचे ऐसे ही बहुजन साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का नाम दबा है !
     ―मां कांशीराम साहब जी ने एक एक बहुजन नायक को बहुजन से परिचय कराकर, बहुजन समाज के लिए किए गए कार्य से अवगत कराया सन 1980 से पहले भारत के  बहुजन नायक भारत के बहुजन की पहुँच से दूर थे,इसके हमें निश्चय ही मान्यवर कांशीराम साहब जी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने इतिहास की क्रब में दफन किए गए बहुजन नायक/नायिकाओं के व्यक्तित्व को सामने लाकर समाज में प्रेरणा स्रोत जगाया !
   ―इसका पूरा श्रेय मां कांशीराम साहब जी को ही जाता है कि उन्होंने जन जन तक गुमनाम बहुजन नायकों को पहुंचाया, मां कांशीराम साहब के बारे में जान कर मुझे भी लगा कि गुमनाम बहुजन नायकों के बारे में लिखा जाए !
          ―ऐ मेरे बहुजन समाज के पढ़े लिखे लोगों जब तुम पढ़ लिखकर कुछ बन जाओ तो कुछ समय ज्ञान,पैसा,हुनर उस समाज को देना जिस समाज से तुम आये हो !
 ― तुम्हारें अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए मैं दुबारा नहीं आऊंगा,ये क्रांति का रथ संघर्षो का कारवां ,जो मैं बड़े दुखों,कष्टों को सहकर यहाँ तक ले आया हूँ,अब आगे तुम्हे ही ले जाना है ―
      ―साथियों एक बात याद रखना आज करोड़ों लोग जो बाबासाहेब जी,माँ रमाई के संघर्षों की बदौलत कमाई गई रोटी को मुफ्त में बड़े चाव और मजे से खा रहे हैं ऐसे लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है जो उन्हें ताकत,पैसा,इज्जत,मान-सम्मान मिला है वो उनकी बुद्धि और होशियारी का नहीं है बाबासाहेब जी के संघर्षों की बदौलत है !
       ―साथियों आँधियाँ हसरत से अपना सर पटकती रहीं,बच गए वो पेड़ जिनमें हुनर लचकने का था !
       ―तमन्ना सच्ची है,तो रास्ते मिल जाते हैं,तमन्ना झूठी है,तो बहाने मिल जाते हैं,जिसकी जरूरत है रास्ते उसी को खोजने होंगें 
निर्धनों का धन उनका अपना संगठन है,ये मेरे बहुजन समाज के लोगों अपने संगठन अपने झंडे को मजबूत करों शिक्षित हो संगठित हो,संघर्ष करो !
      ―साथियों झुको नही,बिको नहीं,रुको नही, हौसला करो,तुम हुकमरान बन सकते हो,फैसला करो हुकमरान बनो"
       ―सम्मानित साथियों हमें ये बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हमारे पूर्वजों का संघर्ष और बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। हमें उनके बताए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए !
        ―सभी अम्बेडकरवादी भाईयों, बहनो,को नमो बुद्धाय सप्रेम जयभीम! सप्रेम जयभीम !!
          ―बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर  जी ने कहा है जिस समाज का इतिहास नहीं होता, वह समाज कभी भी शासक नहीं बन पाता… क्योंकि इतिहास से प्रेरणा मिलती है, प्रेरणा से जागृति आती है, जागृति से सोच बनती है, सोच से ताकत बनती है, ताकत से शक्ति बनती है और शक्ति से शासक बनता है !”
        ― इसलिए मैं अमित गौतम जनपद-रमाबाई नगर कानपुर आप लोगो को इतिहास के उन पन्नों से रूबरू कराने की कोशिश कर रहा हूं जिन पन्नों से बहुजन समाज का सम्बन्ध है जो पन्ने गुमनामी के अंधेरों में खो गए और उन पन्नों पर धूल जम गई है, उन पन्नों से धूल हटाने की कोशिश कर रहा हूं इस मुहिम में आप लोगों मेरा साथ दे, सकते हैं —
           ―पता नहीं क्यूं बहुजन समाज के महापुरुषों के बारे कुछ भी लिखने या प्रकाशित करते समय “भारतीय जातिवादी मीडिया” की कलम से स्याही सूख जाती है !.इतिहासकारों की बड़ी विडम्बना ये रही है,कि उन्होंने बहुजन नायकों के योगदान को इतिहास में जगह नहीं दी इसका सबसे बड़ा कारण जातिगत भावना से ग्रस्त होना एक सबसे बड़ा कारण है इसी तरह के तमाम ऐसे बहुजन नायक हैं,जिनका योगदान कहीं दर्ज न हो पाने से वो इतिहास के पन्नों में गुम हो गए —
     ―उन तमाम बहुजन नायकों को मैं अमित गौतम जंनपद   रमाबाई नगर,कानपुर कोटि-कोटि नमन करता हूं !
जय रविदास
जय कबीर
जय भीम
जय नारायण गुरु
जय सावित्रीबाई फुले
जय माता रमाबाई अम्बेडकर जी
जय ऊदा देवी पासी जी
जय झलकारी बाई कोरी
जय बिरसा मुंडा
जय बाबा घासीदास
जय संत गाडगे बाबा
जय पेरियार रामास्वामी नायकर
जय छत्रपति शाहूजी महाराज
जय शिवाजी महाराज
जय काशीराम साहब
जय मातादीन भंगी जी
जय कर्पूरी ठाकुर 
जय पेरियार ललई सिंह यादव
जय मंडल
— जय हो उन सभी गुमनाम बहुजन महानायकों की जिंन्होने अपने संघर्षो से बहुजन समाज को एक नई पहचान दी,स्वाभिमान से जीना सिखाया —
              अमित गौतम
             युवा सामाजिक
                कार्यकर्ता         
              बहुजन समाज
  जंनपद-रमाबाई नगर कानपुर
           सम्पर्क सूत्र-9452963593



टिप्पणियाँ

  1. बहुजन नायक ओमप्रकाश बाल्मीकि जी की आत्मकथा 'जूठन' भारीय हिन्दू समाज की विषमतापूर्ण सच्चाई का पर्दाफाश करती हुई लेखनी की आब-बीती है..........।
    जय भीम

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